श्रावण सेरा करी गयो सखी म्हारी छोटी कसरावद उपर
खड़ी खड़ी अबला चीर भींज रही पेरी पीताम्बर जरीदार
छोटी मोटि बूंद को मेवलो बरस झड़िया लग रही चव फेर
सखी चमक उठ बैठ आंगन में गगन गरज रहा सीर उपर
घर चलो की सखीबाई यहाँसे बायर मुझको लगता है डर
बादल गरजे बिजली चमके नंदीया जा रही भर पुर
नंदी रे आर पार दुई गाँव बिच म नंदी रे
वा नंदी रे जाय भरपूर नार कूदी गई रे
एक आस्सी वार का पार भरा रे बजार
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तो छोटी कसरावद की छोटी मोटि गलियाँ न राह म मिली गयो दिलभर
पायल बजावती आई आलबेली थारी बिछिया
को पड़ी गयो झनकार
कर घुंघट का पट्ट सावरी न सोहे कानों में हैं बेसर
गँवार गणपत क्या समझेगा मुरख पे पड़ गया घोटाला
वा नार उसे देख रही लोभाणी जी
वो मुरख रया पछताय खाय गिल्खानी
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